Monday, October 2, 2017




आपने धूमधाम से जन्माष्टमी मनाई, पर यक़ीन मानिए, जन्माष्टमी का इससे बेहतर ज़श्न कहीं हो ही नहीं सकता, इन बच्चों के साथ, ये तस्वीरें हैं देवरिया के स्टेशन रोड के नारी निकेतन और बाल गृह केंद्र की, छोटे छोटे मासूम निराश्रित बच्चे, जिनमें अधिकांश को ये तक नहीं पता कि उनके माता -पिता कौन हैं, ये बच्चे नन्हीं सी उम्र में ही ज़िंदगी की तमाम दुश्वारियां झेल रहे हैं, ऐसे में माँ बाप की भूमिका निभा रही हैं श्रीमती गिरिजा त्रिपाठी जी और श्रीमती कंचन जी, इनकी लगन देख मुरीद हो गया, वे सिर्फ इन बच्चों की देखरेख का दायित्व ही नहीं निभा रहीं, बल्कि अपने बच्चों जैसा स्नेह भी दे रहीं हैं, यही बड़ी बात है, काफ़ी वक्त इन बच्चों के साथ गुज़ारा, उनका परफ़ॉर्मेंस भी देखा, ये महसूस हुआ कि अद्भुत प्रतिभा है इन बच्चों में, शायद यही ईश्वर की लीला है, संकट भी देते हैं तो संकट से लड़ने की ताक़त भी, यही ताक़त इन नन्हे मुन्नों में भी नज़र आई, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम अपनी ख़ुशियों के बीच थोड़ा भी इन बच्चों को दे पाएँ तो ये शायद सबसे बड़ी पूजा होगी, धन्यवाद 🙏

गांधी जी के 18 बंदर



ये हैं गांधी जी के 18 बंदर, चौंक गए ना, तो सुनिए, ये बंदर निकले हैं गोरखपुर से लखनऊ की कठिन साइकिल यात्रा पर, गांधी जी के तीन बंदरों की माफिक बच्चों के साथ बुरा मत करो- बुरा मत देखो और बुरा मत सुनो के संदेश के साथ, इनकी अगुवाई कर रहे हैं....

क्रांतिकारी साथी आजाद पांडेय, अष्टानंद पाठक और मंगेश झा, आज़ाद पांडेय जी रेलवे स्टेशन पर रहने वाले अनाथ बच्चों के लिए माता पिता की भूमिका निभाते हैं, अपने बच्चों की तरह उनकी सेवा करते हैं, कई बार ख़ुद भूखे रह कर भी उनका पेट भरने के लिये स्माइल रोटी बैंक चलाते हैं, और कलयुग के राक्षसों से बच्चे-बच्चियों की हिफाजत की लड़ाई भी लड़ते हैं, अष्टानंद पाठक जी सिविल सेवा में सफल होकर मुक़ाम पा चुके हैं, तमाम प्रतियेगी छात्रों के रोल माडल हैं, उनके पास गाड़ी है बंगला है, पर अनाथ ग़रीब बच्चों को उनका हक़ दिलाने के लिए उमस और गर्मी में वे सब कुछ छोड़कर साइकिल यात्रा पर हैं, मंगेश झा प्रतिष्ठित इंस्टीट्यूट से होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद बड़े होटलों का मैनेजमेंट संभालते थे, पर एक बार झारखंड के जंगलों में जाकर आदिवासी परिवारों की व्यथा देखी तो लाखों का पैकेज छोड़ सामाजिक मैनेजमेंट संभालने उतर पड़े, ऐसे वक्त में तब जबकि बापू, शास्त्री जी, बाबा साहब और दीनदयाल जी जैसे महापुरूषों के विचार तमाम लोगों के लिये महज़ किताबों और भाषणों की बात बन कर रह गए हैं तब ये दीवाने सुख चैन छोड़ कर कुछ कर गुज़रने के लिये निकल पड़े हैं, शोर शराबे से दूर, मीडिया की सुर्खियों से इतर, सीआरपीएफ़ के असिस्टेंट कमांडेट सर्वेश एक मिलिट्री आपरेशन में जख्मी होने के बाद भी इन साइकिल यात्रियों का बराबर साथ दे रहे हैं, बहादुर और छोटी बहन शुभांगी भी इन साइकिल यात्रियों में शामिल हैं..

 सौभाग्यशाली हूँ कि गोरखपुर में इस साइकिल यात्रा को शुरू कराने के अभियान का हिस्सा बना, यात्रा तीन अक्टूबर को लखनऊ पहुँचेगी, नकारात्मकता के माहौल में एक सकारात्मक लक्ष्य के साथ निकले इन नौजवानों को हृदय से शुभकामनाएँ, आप सभी को भी हृदय से साधुवाद, बापू और शास्त्री जी की जयंती पर इससे बड़ी श्रद्धांजलि भला और क्या हो सकती है, मेरा मानना है कि हम सबको भी इस ईमानदार प्रयास का छोटा सा ही सही, पर एक हिस्सा ज़रूर बनना चाहिए मासूम बच्चों और बचपन को बचाने का, जय हिंद- जय भारत 🙏

Wednesday, August 9, 2017

कड़े फैसलों से यूपी को पटरी पर लाने की कवायद में योगी सरकार

कड़े फैसलों से यूपी को पटरी पर लाने की कवायद में योगी सरकार

 उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने हाल ही में विधानसभा सत्र के दौरान यूपी लोकसेवा आयोग में पिछले पांच सालों के दौरान हुई भर्तियों की जब सीबीआई जांच कराने का ऐलान किया तो प्रदेश में लंबे वक्त से लड़ाई लड़ रहे प्रतियोगी छात्र खुशी से झूम उठे। इलाहाबाद में तो बकायदा प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति के बैनर तले नौजवानों ने एक दूसरे को गुलाल अबीर लगाकर इस फैसले का स्वागत किया। पर इसके उलट, विपक्ष इस फैसले से सन्नाटे में दिख रहा है। खास तौर पर समाजवादी पार्टी, जिसकी सरकार रहते यूपी लोक सेवा आयोग जैसी ख्याति प्राप्त संस्था की साख पर भी बट्टे लगे। आयोग पर पैसे लेकर नौकरियां देने और साक्षात्कार के नाम पर धांधली करने के आरोप खुल कर लगे। हद तो तब हुई जब एक मर्तबा पीसीएस भर्ती जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा का पेपर तक आउट हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने अपने संकल्प पत्र में वायदा किया था कि सरकार में आने पर यूपी लोक सेवा आयोग के भ्रष्टाचार की जांच कराई जाएगी। और योगी आदित्यनाथ जी की सरकार ने ये वायदा पूरा किया। तय माना जा रहा है कि सीबीआई जांच के घेरे में तमाम सफेदपोश आएंगे, खासतौर पर वो जिनके कारनामों के चलते इस आयोग को यूपी लोकसेवा आयोग की जगह भ्रष्टाचार आयोग कहा जाने लगा था। इनमें नेता भी हो सकते हैं और अफसर भी। आपको बता दें कि छात्रों के पुरजोर विरोध के बाद भी जब सपा सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी तब आयोग के क्रिया कलापों पर खुद अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा था और अदालत ने आयोग के चेयरमैन अनिल यादव की नियुक्ति को अवैध बताते हुए उन्हें बरखास्त तक कर दिया था। इतना ही नहीं, अनिल यादव के रहते ही तमाम भर्तियां अभी भी विवादों के घेरे में हैं और इन भर्तियों को लेकर अदालत में मुकदमे चल रहे हैं। अब जबकि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्नाथ जी ने सीबीआई जांच का ऐलान कर दिया है तब माना जा रहा है कि भर्तियों में हुई धांधली की कहानी खुलकर सामने आएगी और उन छात्रों को इंसाफ मिलेगा जिनका हक मारा गया। इस फैसले के बीच ही यूपी की योगी आदित्नाथ जी की सरकार को अब चार महीने पूरे हो गए हैं। किसी सरकार की समीक्षा के लिए यूं तो चार महीने का समय पर्याप्त नहीं होता लेकिन इन चार महीनों में ही सरकार ने अपने अंदाज से आगाज का एहसास करा दिया है। ये बता दिया है कि उत्तर प्रदेश में अब वो नहीं चलेगा जो पिछले चौदह पंद्रह सालों से यहां होता आ रहा था। जाहिर है डेढ दशक का वक्त काफी होता है और डेढ दशकों में ना सिर्फ उत्तर प्रदेश की कार्यसंस्कृति बदल गई थी बल्कि प्रदेश भी विकास की दौड़ में हर रोज पीछे होता चला गया था और इसका नतीजा भुगतना पड़ा था यहां की जनता को। पर सूबे की योगी आदित्नयाथ जी की सरकार इस व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन करने की तैयारी में है। शुरूआत हुई है नौकरशाही से और अब जबकि चार महीने बीत चुके हैं तब सरकार की जद में हैं नौकरशाही से लेकर राजनीति तक के तमाम भ्रष्टाचारी चेहरे। सरकार संभालते ही मुख्यमंत्री योगी ने ऐलान किया कि अफसरों को वक्त से दफ्तर पहुंचना होगा, लोगों की जनसुनवाई करनी होगी। सिर्फ अफसरों के लिए ही नहीं बल्कि आम जनता के लिए भी ये एक हैरान करने वाला फैसला था। इसलिए क्यूंकि चंद ही अफसर ऐसे रहे होंगे जो वक्त से अपने दफ्तरों में मिलते थे। पिछले डेढ दशक के दौरान अफसरों की लेटलतीफी एक ढर्रा बन गया था और कोई भी इस ढर्रे को तोड़ना नहीं चाहता था। पर अब नई सरकार इस खराब परंपरा को तोड़ने में कमर कस कर जुटी हुई है। सरकार का ही खौफ है कि ज्यादातर अफसर वक्त से दफ्तरों में बैठने लगे हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं जो खुद को बदलने को तैयार नहीं। तो ऐसे अफसर सरकार के निशाने पर भी हैं। हाल ही में दर्जनों अफसरों को सरकार की नोटिस मिली है जिसमें उनसे पूछा गया है कि वक्त पर दफ्तर नहीं पहुंचने के कारण उनके खिलाफ कार्रवाई क्यूं ना की जाए। बात यहीं नहीं खत्म हुई है। मुख्यमंत्री ने खुद तमाम फरियादियों के साथ बैठकर वीडियो कांफ्रेंसिग के जरिए जनसुनवाई की समीक्षा करनी शुरू कर दी है। ये एक अनूठी पहल है और इस वीडियो कांफ्रेंसिग के दौरान एक तरफ मुख्यमंत्री और फरियादी होते हैं तो दूसरी तरफ शिकायतों का निपटारा करने वाले अधिकारी। सीधा जवाब तलब होता है कि शिकायतों का निपटारा क्यूं नहीं हुआ।


यूपी के नौकरशाही के लिए कठिन इम्तेहान है। क्यूंकि सरकार ने अपने दरवाजे आम जनता के लिए खोल दिए हैं। जनता दर्शन के जरिए मुख्यमंत्री हर रोज लोगों से मिलते हैं और सीधा संवाद करते हैं। जब वो राजधानी में नहीं होते हैं तो कोई ना कोई मंत्री इस काम को अंजाम देते हैं। वक्त की पाबंदी सिर्फ अफसरों तक ही सीमित नहीं है। मंत्री हों, स्कूली टीचर हों या फिर गांवों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात डाक्टर। सबके लिए ये नियम बराबर लागू है। इस कड़ाई के सकारात्मक परिणाम सामने भी आने लगे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ तो सरकार ने खुली जंग छेड़ दी है। पालना घोटाला और रिवर फ्रंट घोटाला की भी सीबीआई जांच की सिफारिश करने में सरकार ने देर नहीं लगाई। आरोप है कि पिछली सरकार में गरीब मां बाप के लिए आई पालना योजना के पैसे में बंदरबांट की गई और मजदूर परिवारों का हक मारा गया। इसी तरह गोमती नदी साफ करने की योजना 160 करोड़ से होती हुई करीब 1600 करोड़ तक जा पहुंची और अधिकांश पैसे का भुगतान होने के बाद भी गोमती नदी की हालत बद से बदतर हो गई। पिछले 15 सालों के दौरान प्रदेश के लोगों ने पहले भी ऐसे कई घोटाले होते देखे थे पर एक सरकार में हुई घोटालों की जांच दूसरी सरकार सीबीआई को भेज दे, ऐसा होता हुआ नहीं देखा गया था। योगी सरकार इस परंपरा को तोड़ती हुई दिख रही है। भ्रष्टाचारी अफसर हों या नेता, सरकार हर किसी पर शिकंजा कसने में जुट गई है। हाल ही में सरकार ने एक एआरटीओ को गिरफ्तार कराया तो उसके पास से अरबों की संपत्ति का पता चला। पिछली पंद्रह साल की सरकारों के दौरान ये आरटीओ अफसर घूम फिर कर कुछ खास जिलों में ही तैनात रहा। या यूं कहें कि उसके भ्रष्टाचार को सरकारी संरक्षण मिलता रहा। योगीराज में फिलहाल वो अब जेल की हवा खा रहा है। इसी तरह लखनऊ विकास प्राधिकरण के महाभ्रष्ट बाबू को भी दफ्तर में बुलाकर गिरफ्तार करा दिया गया। इस महाभ्रष्ट बाबू के किस्से में समूची राजधानी में चर्चित थे। पर उसके खिलाफ कार्रवाई करने का साहस कोई सरकार नहीं दिखा पाई। गौरतलब ये भी है कि महज चार महीनों के दौरान योगी सरकार राजपत्रित अफसरों समेत करीब तीन दर्जन घूसखोर गिरफ्तार करा कर जेल भेज चुकी है। अपराध के हाई प्रोफाइल मामलों में भी तेजी से कार्रवाई हुई है। पूर्व कैबिनेट मंत्री और मुलायम परिवार के बेहद करीबी गायत्री प्रजापति भी इसके उदाहरण हैं। सपा सरकार में गैंगरेप का आरोप लगने के बाद भी खुलेआम घूमते रहे गायत्री भी अब जेल की सलाखों के पीछे हैं। इतना ही नहीं, प्रदेश भर में भू माफियाओं के खिलाफ चल रही मुहिम के तहत गायत्री प्रजापति की तमाम गैरवाजिब और अवैध कब्जे वाली बिल्डिगों को भी ध्वस्त कर दिया गया है। विधानसभा की कार्यवाही के दौरान मुख्यमंत्री ने खुले शब्दों में कहा कि राजनीतिक संरक्षण में हुई जमीन कब्जे की घटनाओं पर सरकारी बुल्डोजर बिना रोकटोक चलते रहेंगे। योगी जब ये बोल रहे थे तब विपक्ष की लाबी में पूरी तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। देश के सबसे बड़े प्रदेश में ये अभी शुरूआत भर है, भ्रष्ट और नाकारा हो चुके काकस को तोड़ने की। पर उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार जिस राह पर है, उससे तंत्र भी सुधरेगा और उत्तर प्रदेश के हालात भी।

Friday, September 4, 2009


ये हैं समाजवाद के लड़ाके

कुछ दिन पहले की बात है। मुलायम सिंह यादव पत्रकार वार्ता के पहले पत्रकारों से हंसी मजाक कर रहे थे। बोलते-बोलते कह गये। ये मुख्यमंत्री तो मिलने का वक्त ही नहीं देतीं। कई बार कहा मिलना चाहता हूं। पर समय ही नहीं दिया। पत्रकार हंस पडें तो मुलायम थोड़ा झेंप से गये। पर मुलायम का ये कबूलनाम हकीकत है इस प्रदेश की राजनीति का जहां माया बनाम मुलायम संघर्ष में छल का भी प्रयोग हो रहा है, दल का भी प्रयोग हो रहा है और यदा कदा बल का भी। दरअसल ये जंग महज सियासी जंग नहीं है। आपको याद होगा। वो घटनाक्रम, जब एक तरफ प्रदेश भर के थानों में आनन-फानन मुलायम के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो रहे थे तो दूसरी तरफ हैरान परेशान मुलायम वक्त रहते पहुंच जाना चाहते थे गाजियाबाद से दिल्ली। कहीं उनको गिरफ्तार ना कर लिया जाये। मायावती इस बार सत्ता संघर्ष में आई तो भी उनका नारा था कि सरकार बनते ही मुलायम को जेल भेजूंगी। हालांकि अब सत्ता पाने के बाद वो कहती हैं कि बदले की भावना से काम नहीं करती वर्ना मुलायम जेल में होते। पर सच्चाई ये है कि मुलायम बनाम माया के संघर्ष में पिस रहा है प्रदेश। मुलायम ने लखनऊ शहर को लोहियामय किया तो मायावती ने आते ही लखनऊ को कर डाला माया मय। अंबेडरकर के अलावा कांशीराम की तो मूर्तियां लगी हीं, खुद मुख्यमंत्री ने भी अपनी मूर्तियां लगवा डालीं।
मुलायम अभी से अगले चुनाव का नारा तैयार करे बैठे हैं। 'सरकार में आया तो गिरवा दूंगा मूर्तियां '। साफ है दोनों ही नेताओं की राजनीति रह गयी है एक दूसरे तक सीमित। दरअसल गेस्ट हाउस कांड के बाद से दोनों दलों के बीच की राजनीतिक लड़ाई बदल चुकी है वरदहस्त के संघर्ष में। और इस संघर्ष में सब कुछ इस्तेमाल हो रहा है। अपनी पिछली सरकार में मुलायम के सामने बीएसपी कहीं नजर नहीं आई। ना तो हाउस के अंदर न ही प्रदेश की सड़कों पर। मुलायम ने अपने अंदाज में सरकार चलाई। पर अब बारी है मायावती की। और मायावती भी जुटी हैं उसी अंदाज में।
नजीर के तौर पर मायावती सरकार ने अभी हाल में एक फैसला कर पुलिस की पूरी संरचना ही बदल डाली। जिलों की कमान नए आईपीएस अफसरों यानी की एसएसपी से छीन कर दे दी गयी डीआईजी यानी घिसे घिसाये ऐसे अधिकारियों को। अंदरखाने की मानें तो सरकार चाहती थी जिलों की कमान ऐसे अफसरों के हाथ में हो, जो सरकार का इशारा बखूबी समझ सकें। नए अधिकारियों के साथ दिक्कत ये थी कि वो सरकार के साथ वफादारी निभाना नहीं जानते थे। और इससे पहले तक ज्यादातर जिलों की इन नए खून वाले अधिकारियों के ही हाथ में थी। लिहाजा हो गया बदलाव।
विरोधियों की मानें ये सारी तैयारी चुनाव के मद्देनजर की जा रही है। प्रशासनिक स्तर पर चुनाव से पहले अभी और फेरबदल होने की खबरें आ रही है। सूत्रों की मानें तो अधिकारियों को समीक्षा बैठकों के बहाने उन्हें बुला कर ये बताया जा रहा है कि चुनाव आयोग तोप नहीं है। चुनाव के बाद भी सरकार रहेगी और फिर देखेगी किसने क्या किया।
राजनैतिक स्तर पर भी चुन-चुन कर चोट पहुंचाने पर आमादा है बीएसपी। मानो मुलायम से एक-एक पल का बदला लेने पर आमादा हो। जिन बाहुबलियों के सहारे मुलायम कभी लाव लश्कर लिये घूमा करते थे, वो आज हाथी पर सवारी कर रहे हैं। मायावती ने चुन-चुन कर मुख्तार, अफजाल, अतीक, अन्ना शुक्ला, हरिशंकर तिवारी जैसे बाहुबलियों को तो मुलायम से अलग किया ही, उन्हें सोशल इंजीनियरिंग का कार्यकर्ता भी बना डाला। मुलायम जिन बाहुबलियों को कभी कानून का सताया सोशलिस्ट बताते थे अब उन्हीं को अपराधी साबित करने में जुटे हैं। ये वही मुलायम थे जिनके जमाने में शैलेंद्र सिंह जैसे ईमानदार डिप्टी एसपी को मुख्तार के चलते नौकरी तक छोड़नी पड़ी थी। अब मुलायम का समूचा कुनबा जुटा है मुख्तार को डॉन बताने में। प्रदेश का दुर्भाग्य यही है। एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये पार्टियों को इन बाहुबलियों की दरकार है और इसी का फायदा उठाते आ रहे हैं ये बाहुबली। जिसकी सत्ता उसके नौरत्न। फिर आम आदमी की फिक्र किसे है।
मायावती जी की मानें तो इन सारे बाहुबलियों को पार्टी में शामिल कर उन्होंने सुधरने का मौका दिया है। सवाल ये है कि क्या शरीफों की कमी है देश और प्रदेश में। कि बहन जी को सहारा लेना पड़ रहा है इन बिगड़े हुओं का.... बात साफ है। मुलायम हो, चाहे मायावती या फिर लालू और पासवान जैसे लोग। इनकी लड़ाई तो शुरू हुई समाजवाद के नाम पर, समतामूलक समाज के नाम पर, बराबरी का हक दिलाने के नाम पर... लेकिन अब अपने अपने स्वार्थ और सियासी फायदे के लिये आपस में ही भिड़े पड़े हैं सब.. बेचारा समाजवाद तो दूर पड़ा है धूल में, कीचड़ में, किसी गरीब की कोठरी में...

एनकाउंटर पर ये कैसा शोर

लंबे समय से सोच रहा हूं, लिखना भी चाहता था। पर लगता था कि न लिखूं तो ही ठीक है। हो सकता है किसी को मेरी बातें ठीक ना लगें। पर आज खबर लगी कि एक बार फिर एक शहीद की शहादत पर उठाये जा रहे हैं सवाल। एक बार पहुंचाई जा रही है किसी शहीद के परिवार को पीड़ा। लिहाजा खुद को रोक ना पाया और आ गया आप सबके बीच। मसला है शहीद इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा का....मसला है उस एनकाउंटर का जिसको लेकर हो रही है सियासत। बीते साल दिल्ली में हुई आतंकी वारदात के तुरंत बाद हुआ ये था बाटला एनकांउटर। तमाम संगठन, सियासी दल अब इस एनकाउंटर के खिलाफ लंबी लड़ाई का बिगुल फूंक रहे हैं। ऐसे में इंतजार था कि कहीं से कोई आवाज तो उठेगी पर अफसोस। अबसे कुछ रोज पहले ही हम सब जिसकी शहादत को सलाम करते रहे उसके लिये पूरे देश से कोई आवाज नहीं उठी, किसी भी संगठन ने नेताओं से ये कहने की हिम्मत नहीं जुटाई कि सब कुछ कबूल है पर शहीदों की शहादत का अपमान नहीं। कहना क्या चाहते हैं। मोहन चंद्र शर्मा ने क्या खुद को गोली मार ली या फिर उनके दोस्तों ने उन्हें गोली का निशाना बना लिया।
वो जांबाज इंस्पेक्टर जिसने मौत से जूझते हुए अपने बच्चे की परवाह किये बिना अपनी जान दांव पर लगा दी, आज उसकी शहादत पर सियासत हो रही है। मुझे तो शर्म आती है। उन तथाकथित बुद्धिजीवियों से पूछिये जो बाटला हाउस एनकाउंटर के महज 48 घंटे बाद ही इस नतीजे पर जा पहुंचे कि एनकाउंटर फर्जी है। आखिर कौन सा आधुनिक संयंत्र था उनके पास जिसने ये रिपोर्ट दे डाली। तमाम मानवाधिकार के रहनुमा आंसू बहाते जा पहुंचे आजमगढ़।
मैम्सेसे पुरस्कार प्राप्त संदीप पाण्डेय जैसे लोगों ने भी इस मोर्चे की अगुआई की। हैरानी होती है। तमाम संसाधनों से लैस पुलिस और खोजी मीडिया इस एनकाउंटर की हकीकत नहीं ढूंढने का दावा नहीं कर पाई पर ये बुद्धजीवी महज 48 घंटे में जा पहुंचे नतीजे पर। दुख होता है कहते हुए पर सही बात तो ये है कि मोहन चंद्र शर्मा की शहादत ने कम से कम इस एनकाउंटर को जायज ठहरा दिया वर्ना राजनीति के इस दौर में कोई बड़ी बात नहीं कि जिंदा रहते हुए खुद मोहन चंद्र शर्मा और उनकी टीम कटघरे में खड़ी होती। और उनके खिलाफ आवाज बुलंद हो रही होती।
शहादत ने कम से कम ये बात तो साबित ही कर दी कि एनकाउंटर में सामने से गोलियां भी चलीं। हम हिंदुस्तानी उम्मीद करते हैं कि कोई जवान अपनी जान हथेली पर रख कर हमारी हिफाजत करेगा पर एक शहीद की शहादत का मजाक उड़ाने वालों के खिलाफ आगे नहीं आते। एसी कमरे में बैठ कर खबर देखते हैं और भूल जाते हैं कि इस खबर का ताल्लुक उस शख्स से है जिसने देश की हिफाजत के लिये कुर्बानी दी। तभी तो चल रही है नेताओं की सियासत।
वोट बैंक सधे, इसके लिये कुछ भी बोलने से परहेज नहीं क्योंकि उन्हें पता है कि आम हिंदुस्तानी की कोई आवाज नहीं। वो सिर्फ सुनना जानता है। क्या किसी भी बुद्धिजीवी, समाजसेवी या मानविधकार के रहनुमा ने मोहन चंद्र शर्मा के घर की हालत जानने की कोशिश की। क्या किसी मानवाधिकार संगठन ने उनके बूढ़े पिता, उनकी पत्नी और मासूम बच्चों की आवाज उठाई। छोड़िये। कौन सा मानवाधिकार संगठन है जो आतंकी हमलों में मारे गये लोगों के परिवार वालों को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ रहा है। कौन सा बुद्धजीवी है जो हमलों में मारे गये बेकसूरों के परिवार वालों का सहारा बन रहा है। सारा मानवाधिकार आतंक फैलाने वाले देशद्रोहियों के लिये ही।
अफसोस है मोहन चंद्र शर्मा के घर तो बुद्धजीवी नहीं पहुंचे पर मारे गये आतंकी के घर मरहम का फाहा लगाने पूरी की पूरी फौज जुट आई। मैं एनकाउंटर में मारे गये या फिर पकड़े गये आतंकियों को सौ फीसदी दावे के साथ गुनाहगार कहने को तैयार नहीं, पर कम से कम अदालत के फैसले का इंतजार तो कर लिजिये। कम से कम तब तक तो किसी शहीद की शहादत का मजाक ना उड़ाइये। अगर यकीन है अदालत जैसी संस्था पर। अगर यकीन है देश के कानून पर।
पर कौन बोले। शायद यही वजह है जिसके चलते अब नौजवान भगत सिंह नहीं बनना चाहते। कोई, वीर अब्दुल हमीद की तरह जान नहीं देना चाहता। लोग चाहते हैं कि भगत सिंह पैदा हों पर मेरे घर नहीं, पड़ोसी के घर। क्योंकि पता है शहीदों की शहादत पर सवाल खड़े करने की परंपरा चल पड़ी है। आज के दौर में भगत सिंह या वीर अब्दुल हमीद भी होते तो किसी ना किसी अमर सिंह का बयान सस्ती लोकप्रियता की वजह जरूर बन जाता है।
पर शहीदों की शहादत पर सवाल उठाना ही अब शायद बुद्धजीवी कहलाने की पहचान बन गयी है। लोग चौंक कर सुनते तो हैं। अंत में भरे मन से शहीद मोहन चंद्र शर्मा को श्रद्धांजलि। अगर मेरी आवाज उनके परिवार के लोगों तक पहुंच सकती है तो कहना चाहूंगा कि एक हिंदुस्तानी होने के नाते उनके साथ था, उनके साथ हूं और उनके साथ रहूंगा भी। फिर भले ही किसी को मेरी ये बात बुरी क्यूं ना लगे.........जय हिंद।

Tuesday, August 25, 2009

मुक्त उड़ान की लालसा


दुनिया के कुछ नियम हैं। कुछ हिसाब किताब हैं और कुछ अपनी सीमायें हैं। मनुष्य बंधा हुआ है। कभी नियति के हाथों से, कभी ख़ुद की बनायी हुई परिस्थितियों से और कभी अपने आप से । ब्लॉग की दुनिया मुक्त है और हर जीव को मुक्त उड़ान की लालसा ही इस स्लेट तक खींच लाती है। मैं विद्युत संजाल का पुराना खिलाडी हूँ लेकिन ब्लॉग स्पाट की दुनिया में नया हूँ। जाहिर है नए आदमी को पुराने लोगों के सहयोग और प्यार की जरूरत होती। मैं चाहूंगा कि मुझे लोग यहाँ भी पढ़ें और जिस तरह आईबीएन 7 पर मुझे देखकर आप लगातार फोन करके या मेल से हौसला बढाते हैं उसी तरह यहाँ भी आप सबका प्यार मिलेगा।
आप सबका
शलभ